Thursday, April 24, 2025

सिंधु जल समझौता (Sindhu Jal Samjhauta

 सिंधु जल समझौता (Sindhu Jal Samjhauta): एक विस्तृत लेख



परिचय


भारत और पाकिस्तान के बीच सिंधु जल समझौता (Indus Waters Treaty) एक ऐतिहासिक और महत्वपूर्ण जल संधि है, जो दो देशों के बीच जल संसाधनों के बंटवारे को लेकर बनी थी। यह संधि 1960 में विश्व बैंक की मध्यस्थता में हस्ताक्षरित हुई और इसे अब तक की सबसे सफल अंतरराष्ट्रीय जल संधियों में गिना जाता है। यह लेख इस समझौते के ऐतिहासिक, भौगोलिक, कानूनी, और राजनीतिक पहलुओं की विस्तृत जानकारी देगा।



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संधि की पृष्ठभूमि


1947 में भारत के विभाजन के बाद सिंधु नदी प्रणाली का कुछ हिस्सा भारत में और कुछ पाकिस्तान में आ गया। यह प्रणाली मुख्यतः छह नदियों पर आधारित है:


1. सिंधु (Indus)



2. झेलम (Jhelum)



3. चिनाब (Chenab)



4. रावी (Ravi)



5. ब्यास (Beas)



6. सतलुज (Sutlej)




बंटवारे के बाद पानी के अधिकारों को लेकर दोनों देशों में तनाव उत्पन्न हुआ, क्योंकि भारत का नियंत्रण नदी के ऊपरी हिस्से पर था और पाकिस्तान निचले हिस्से में स्थित था। इस स्थिति को लेकर भविष्य में गंभीर संघर्ष की आशंका थी। ऐसे में विश्व बैंक ने हस्तक्षेप कर इस मुद्दे का स्थायी समाधान निकालने के लिए दोनों देशों को एक समझौते पर आने में सहायता की।



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सिंधु जल समझौते पर हस्ताक्षर


हस्ताक्षर की तिथि: 19 सितंबर 1960

स्थान: कराची, पाकिस्तान

हस्ताक्षरकर्ता:


भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू


पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल अयूब खान


विश्व बैंक के प्रतिनिधि W.A.B. Illif




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समझौते के प्रमुख प्रावधान


1. नदियों का बंटवारा


संधि के अनुसार नदियों को दो भागों में बांटा गया:


पूर्वी नदियाँ (भारत को अधिकार):


रावी


ब्यास


सतलुज

भारत को इन नदियों के जल का संपूर्ण उपयोग करने का अधिकार दिया गया – सिंचाई, बिजली उत्पादन, और अन्य कार्यों के लिए।



पश्चिमी नदियाँ (पाकिस्तान को अधिकार):


सिंधु


झेलम


चिनाब

इन नदियों के जल पर प्राथमिक अधिकार पाकिस्तान को दिया गया, हालांकि भारत को सीमित उपयोग जैसे सिंचाई, जल विद्युत परियोजनाओं आदि के लिए अनुमति दी गई।



2. परियोजनाओं पर नियंत्रण


भारत को पश्चिमी नदियों पर बाँध और जल विद्युत परियोजनाएँ बनाने की अनुमति है, बशर्ते वे पाकिस्तान को जल प्रवाह में कोई गंभीर बाधा न डालें। ऐसी परियोजनाओं को लेकर पाकिस्तान आपत्ति दर्ज कर सकता है और विश्व बैंक के सहयोग से समाधान निकाला जा सकता है।


3. एक स्थायी सिंधु आयोग का गठन


दोनों देशों ने "Permanent Indus Commission" का गठन किया, जिसमें प्रत्येक देश के एक-एक आयुक्त होते हैं। यह आयोग साल में एक बार बैठक करता है और विवादों का शांतिपूर्वक समाधान करता है।



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समझौते की विशेषताएँ


यह संधि अब तक जारी है, भले ही भारत-पाकिस्तान के संबंधों में कई बार तनाव आया हो।


यह युद्धों के दौरान भी प्रभावी रही (1965, 1971, 1999)।


संधि में पारदर्शिता और आपसी संवाद को प्राथमिकता दी गई है।


इसमें विवाद निवारण की स्पष्ट प्रक्रिया है – दो देशों के बीच चर्चा, तकनीकी विशेषज्ञों की मदद और फिर मध्यस्थता।




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विवाद और चुनौतियाँ


हालांकि सिंधु जल समझौता अब तक लागू है, पर कई बार इसके प्रावधानों को लेकर विवाद उठे हैं:


1. बगलीहार बाँध विवाद


भारत द्वारा जम्मू-कश्मीर में बगलीहार जल विद्युत परियोजना के निर्माण को लेकर पाकिस्तान ने आपत्ति जताई थी। मामला विश्व बैंक के मध्यस्थ विशेषज्ञ के पास गया, जिसने परियोजना में कुछ संशोधनों के बाद इसे वैध ठहराया।


2. किशनगंगा परियोजना विवाद


भारत ने जम्मू-कश्मीर में किशनगंगा नदी (झेलम की सहायक नदी) पर परियोजना बनाई। पाकिस्तान ने इसे जल प्रवाह में हस्तक्षेप बताया। यह मामला भी अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता में गया, जहाँ भारत को कुछ शर्तों के साथ परियोजना जारी रखने की अनुमति मिली।


3. राजनीतिक बयानबाज़ी


भारत द्वारा पुलवामा हमले (2019) के बाद यह बयान आया कि "खून और पानी एक साथ नहीं बह सकते", जिससे यह संकेत मिला कि भारत सिंधु जल समझौते की समीक्षा कर सकता है। हालांकि संधि को औपचारिक रूप से रद्द नहीं किया गया।



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वर्तमान स्थिति और भविष्य


भारत ने 2023 में पाकिस्तान को एक नोटिस भेजा जिसमें सिंधु जल समझौते में संशोधन की बात की गई। भारत का तर्क था कि पाकिस्तान बार-बार तकनीकी परियोजनाओं पर आपत्ति कर समझौते की आत्मा के खिलाफ काम कर रहा है। इस पर अब दोनों देशों में फिर से बातचीत की संभावना है।



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निष्कर्ष


सिंधु जल समझौता भारत और पाकिस्तान के बीच एक दुर्लभ उदाहरण है जहाँ लंबे समय से दोनों पक्षों ने अनुशासन और सहयोग का परिचय दिया है, भले ही अन्य क्षेत्रों में संबंध तनावपूर्ण रहे हों। यह संधि न केवल एक कानूनी दस्तावेज है, बल्कि यह दिखाती है कि कैसे कूटनीति और संवाद के ज़रिए जटिल मुद्दों का समाधान निकाला जा सकता है।


भविष्य में जल संकट और जलवायु परिवर्तन की चुनौती के मद्देनज़र, इस समझौते की प्रासंगिकता और भी बढ़ जाती है। ज़रूरत है कि दोनों देश इसे राजनीतिक हथियार न बनाकर, जल संसाधनों के न्यायपूर्ण और सतत उपयोग का माध्यम बनाएं।

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